लोकतंत्र : छत्तीसगढ़ी कविता

चुनई के बेरा खाए किरिया, कुर्सी म बइठते भुला जाथे।
लोकतंत्र म नइये भरोसा, चोरहा लबरा घलो चुना जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

बोकरा भात अध्धी पउवा, नोट धरा दिस अऊ सउवा।
बिसाये वोट गलाके पइसा, पांच साल म सबे छुटा जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

चुनई नहां के धो डरिस, चोरी चमारी झुठ लबारी पाप।
मन के मइल धोवाही कांमा, घठौन्दा घलो तो बेचा जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

अक्कल नइहे नतो बुध, पढ़ई म रिहीस निच्चट भोकवा।
नेता के सोहबत म बनगे नेता, संसद म जाके उंधा जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

पर के बाना मार खवइया, धरमी दयालु जन सेवक कहाथे।
देस के सच्च सेवा करइया, जंती बर चंऊक-चौरा टंगा जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

अब पछताए ले का होही,हमला तो रहना हे ओकरे सरन।
लात मारय या पुचकराय, दिन म मोहनी जड़ी खवा जाथे।।
चुनई के बेरा खाए किरिया .....

-  जयंत साहू
डूण्डा - रायपुर छत्तीसगढ़ 492015

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