लोक भजन : छत्तीसगढ़ी

जब तक ले तोर संसा हे, संसो नइ छोड़य साथ।
घर परवार के चिंता ह, चिता म नइ देवय साथ।

चोला भव ले उबारे के हे, त संतो के सुन ले बात।
मुक्ति के रद्दा म रेंगे के हे, त हंसा के धर ले हाथ।।

मुंह म जपे पबरित नाम, नजर म झुले पर के नार।
चरितर अइसन राख, जग म झुके झन तोर माथ।।

कमाना हे जस कमा, धन कमा के कहां ले जाना।
प्रेम करे बर दाई-ददा, तिरिया मोह देह के सवारथ।।

जेन नता म जान बसाये, उही तोर इमान डिगाही।
करनी करम सबो लिखाये, हिसाब लगाही दीनानाथ।।

-  जयंत साहू
डूण्डा - रायपुर छत्तीसगढ़ 492015

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मया आसिस के अगोरा... । जोहार पहुना।

सामयिक अतुकांत : ‘वाल्मीकि के बेटी’

हाथरस-बूलगड़ी गांव म घोर कुलयुग एक नारी चार-चार अत्याचारी नियाव के चिहूर नइ सुनिन कोनो मरगे दुखियारी शासन के दबका म कुल-कुटुम अउ प्रशासन तो ...

लोकप्रिय कविता

मैंने पढ़ा