गोल बजार : छत्तीसगढ़ी कविता

झन जाबे गोल बजार,
झुमे हाबे लुटइया हजार।
पांच के ल पंदरा लगाथे,
छुये भर ले झोला म धराथे।।

सबो जिनीस के भरमार हे,
जेती जाबे तेती भिड़ भाड़ हे।
देख-देख के आंखी चौधियाथे,
मोल भाव के चक्कर म ठगाथे।।

बजार के खरीदी नोहे सोहलियत काम,
लेवइया का जाने कतका हे सिरतोन दाम।
बोहनी बट्टा के बेरा कइके सुलिहारथे,
मीठ-मीठ बोली म थइली ल अलहोरथे।।

सोना चांदी अउ नव लखिया के हार,
असली नकली म नइये थोरको चिनहार।
देखते-देखत लेवइया के माल पलटाथे,
जाने म बिके माल वापस नी होवे बताथे।

तेल गुर ल तो महगाई खागे,
अब मिठाइ ल आरुग काहा पाबे।
दार चाउर म गोटी माटी मोवाथे,
अउ दम कर के लेबे त कांटा मराथे।

-  जयंत साहू
डूण्डा - रायपुर छत्तीसगढ़ 492015

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मया आसिस के अगोरा... । जोहार पहुना।

सामयिक अतुकांत : ‘वाल्मीकि के बेटी’

हाथरस-बूलगड़ी गांव म घोर कुलयुग एक नारी चार-चार अत्याचारी नियाव के चिहूर नइ सुनिन कोनो मरगे दुखियारी शासन के दबका म कुल-कुटुम अउ प्रशासन तो ...

लोकप्रिय कविता

मैंने पढ़ा