बुढ़वा बबा के लउठी : छत्तीसगढ़ी कविता

थाम रे बाबू थाम तही, बुढ़वा बबा के लउठी।
कतेक खटाही खियाए पनही, आगे हे उमर संझउती।।
थाम रे बाबू थाम तही, बुढ़वा बबा के लउठी...

बाका जवानी जांगर पेरागे, जोरत-जोरत सुख के गठरी।
लांघन-भुखन पेट खरागे, जग तारण बर खनत सगरी।।
कोन मुंह म चारा चराही, गर म परत हे गइती।
थाम रे बाबू थाम तही, बुढ़वा बबा के लउठी...

नाती करे कारखाना म नौकरी, बिसरगे बबा के नांगर।
परिया परे हरियर डोली, नजर लगे हे काकर।।
अतरगे धान गहू ओनहारी, तरिया हमागे कठउती।
थाम रे बाबू थाम तही, बुढ़वा बबा के लउठी...

जागत खेती सुतत खेती, महतारी बरोबर जतने माटी।
अनपूर्णा उपजाके तनगे छाती, गरब नइये एको रती।।
बचाव संगी किसान के लाज, मान देके उरउती।
थाम रे बाबू थाम तही, बुढ़वा बबा के लउठी...

-  जयंत साहू
डूण्डा - रायपुर छत्तीसगढ़ 492015

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