अतुकांत कविता : जिनगी अइसनेच होथे

उवत-बुड़त,
हमर-तूंहर ओकर,
भितिया म माड़े चिमनी,
सरलग बरत-खपत,
रहि रहिके उपरसस्ती लेवथे,
लागथे संग नइ देवे पोहाती के,
अभिच-तमहि भुतइया हे,
आस हे तभोच ले,
लामे हे तब-तक बरही,
अपन सक भर, 
अंजोर करही,
अरे! ये-ये येल्ले,
होगे न झप ले,
आंखी-आंखी देखती,
डगमिक-डगमिक डोलिस,
भभक-भभक के बोलिस,
जिनगी अइसनेच होथे,
मोर होवय,
चाहे तूंहर।

-  जयंत साहू [ डूण्डा, रायपुर छत्तीसगढ़ ]

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