काली के सुरता : छत्तीसगढ़ी कविता

काली के सुरता ल, काली म झन भुला देहू।
कइसे बीतिस दिन ह, छिन भर सोरिया लेहू।।

नवा दिन के उछाह म, रतिहा चमके जुगुर जागर।
चारो मुड़ा पुन्नी पुनवासा, मन होगे दू मन आगर।।
अवइया के पहुनाई म, जवईया ल बिदाई देहू।
कइसे बीतिस दिन ह, छिन भर सोरिया लेहू।।

कोनो पा लिस दस म, कोनो ह अगोरय गियारा।
दिन साल म का धरे हे, समय लेवथे अपन फेरा।
बदलत दिन देखके, रिस ल झन उतार देहू।
कइसे बीतिस दिन ह, छिन भर सोरिया लेहू।।

मेहनत ले एक राजा बनगे, एक होगे हे रंक।
राजा के खुशी बार न बांधे, रंक मताहे जंग।।
करम लेखा हाथ के, बच्छर ल झन दोस देहू।
कइसे बीतिस दिन ह, छिन भर सोरिया लेहू।।

निरासा म आसा भरे, उम्मीद के आस जगा लेबे।
भुले भटके मनखे ल, सुम्मत के रद्दा धरा देबे।
एसो के नवा साल, सबके बिगड़ी बना देहू।
कइसे बीतिस दिन ह, छिन भर सोरिया लेहू।।

-  जयंत साहू
डूण्डा - रायपुर छत्तीसगढ़ 492015

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